Special Report: साफ-सफाई की एहमियत बताती कोरोना महामारी

Special Report: साफ-सफाई की एहमियत बताती कोरोना महामारी

नरजिस हुसैन

भारत में कोविड-19 का पहला मरीज आए हुए करीब दो महीने हो गए हैं। इतने कम वक्त में ही देश में कोविड के 5,000 से भी ज्यादा लोग मरीज बन चुके है। पूरे देश में लॉक डाउन के बाद भी यह तादाद बढ़ती जा रही है। हालांकि, अभी कुछ साल पहले ही देश एच1एन1 और स्वाइन फ्लू भी फैलता देख चुका है लेकिन, वह तजुर्बा कोविड-19 जैसा न तो जानलेवा था और न ही उन्हें रोकने के लिए इतनी कवायद की जरूरत थी।

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भारत में आज भी किसी नई बीमारी या फ्लू आने के बाद ज्यादातर मेडिकल कर्मी हमेशा स्वास्थ्य सुविधाओं को मजबूत करने की बात करते हैं। वे एक छोटी-सी बात भूल जाते हैं कि ज्यादातर बीमारियों को अस्पतालों तक आने से रोका जा सकता है सिर्फ शरीर और हाथों की सफाई, थूकने और छींकने की अच्छी आदतों को बचपन से ही बढ़ावा देकर। 

किसी भी बीमारी की तीन अलग-अलग चरणों में रोकथाम की जाती है- प्राथमिक, सेकेंडरी और टरशरी। प्राथमिक रोकथाम तभी होती है जब स्वास्थ्य की शिक्षा पर जोर हो स्वास्थ्य को लेकर जनता में जन-जागरुकता हो जैसे टीकाकरण।

इसी तरह किसी भी बीमारी के शुरूआती लक्षणों को दिखने पर फौरन ही उसका इलाज शुरू कर देना सेकेंडरी चरण माना जाता है और टरशरी यानी कि तीसरे चरण में रोगी को बड़े अस्पताल ले जाने की जरूरत पड़ती है जहां-जहां ज्यादा संसाधन होते हैं। अब मरीज को किस लेवल के अस्पताल जाना चाहिए या नहीं ये तय करते हैं सामुदायिक चिकित्सा यानी कम्युनिटी हेल्थ के जानकार। जैसे अगर किसी को सांस से जुड़ी बीमारी है तो उसका इलाज पहले या दूसरे लेवल के अस्पतालों में होगा लेकिन, अगर कोई पोलियो, कुष्ठ रोग जैसी बीमारी से लड़ रहा है तो उसे तीसरे लेवल के अस्पतालों की तरफ ही मुंह करना पड़ता है।

ये बड़ी ही दुर्भाग्य की बात है कि भारत जैसे कई देशों में इलाज के प्राथमिक और सेकेंडरी लेवल की कोई परवाह नहीं करता और लोग इलाज के लिए बड़े अस्पतालों या सेंटरों की तरफ भागते है। हालांकि, ये बड़े अस्पताल आम से कुछ कम लेकिन, गरीब आदमी की पहुंच से बिल्कुल दूर होते हैं। यहां के बड़े डॉक्टर और हेल्थ स्टाफ मरीज  का ध्यान रखते तो हैं लेकिन, इस ध्यान का फायदा सिर्फ मरीज और उसके परिवार यानी कि एक इकाई को ही जाता है जबकि, सार्वजनिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञों के किसी भी बीमारी की रोकथाम पर जोर देने से एक बड़े समुदाय को इससे फायदा पहुंचता है। लेकिन, जहां बड़े अस्पतालों का असर समाज में जल्दी दिखता है वहीं सावर्जनिक स्वास्थ्य की मामूली लेकिन, बेहद जरूरी आदतों का असर देर में दिखाई देता है।

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कुछ इसी तरह कोरोना के इस दौर में भी देखा जा रहा है कि किस तरह हाथों को कुछ-कुछ देर बाद धोना और निजी साफ-सफाई की आदते अपनाकर ही इससे बचा जा सकता है। लेकिन, ये दरअसल 100 फीसद नहीं हो पा रहा है क्योंकि हम भारतीयों की साफ-सफाई की आदतें अभी तक पक्की नहीं हो पाई हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4, 2015-16 में भी सरकार ने एक सर्वे कर यह पाया था कि अमूमन 97 प्रतिशत शहरी भारतीयों के घर में वॉशबेसिन है लेकिन, अमीरों और बहुत प़ढ़े-लिखे लोगों के बीच ही साबुन से हाथ धोने की आदत है। यहां 10 गरीब परिवारों मे से 2 ही हाथ धोते हैं जबकि, अमीर परिवारों में यह आंकड़ा है 10 में से 9 का है। सर्वे में यह भी बताया कि किस तरह हाथ धोने का आदत आपकी जाति और स्तर भी तय करता है और इससे अंतर की मौजूदा खाई और बढ़ती है। जैसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग हाथ धोने में साबुन का बहुत कम इस्तेमाल करते हैं।

हालांकि, बड़ी हैरानी की बात है कि हमारे मेडिकल पढ़ाई में बच्चों को पहले से लेकर आखिरी साल तक सिर्फ दवाइयों के बारे में ही बताया जाता है और कम्युनिटी मेडिसिन को बिल्कुल अनदेखा कर दिया जाता है। लेकिन, हमारी व्यवस्था की खामी को नए बने डाक्टर तब पहचान पाते हैं जब कभी उनकी ड्यूटी दूर-दराज के इलाकों में होती है जहां दवाइयों से पहले लोगों को साफ-सफाई के बारे में जागरूक करना कितना जरूरी है उन्हें तब मालूम होता है। उन्हें पहले तो यही लोगों को सीखाना होता है कि किस तरह सिर्फ हाथ धोने की आदत से बीमारियों से बचा जा सकता है।

हालांकि, सरकार ने भी वक्त-वक्त पर अलग-अलग स्टेकहोल्डर्स को साथ लेकर शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों में हर जाति, धर्म और स्तर के लोगों के बीच स्वास्थ्य संबंधी अच्छी आदतों के जागरुकता अभियान शुरू किए। गैर-सरकारी संगठनों के साथ सीएसआर, प्राइवे कंपनियों और डोनर्स को शामिल कर ऐसा किया गया। 2014 में सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान भी शुरू किया जिसके तहत ग्रामीण इलाकों में सरकार ने हर घर को 12,000 रुपए की आर्थिक मदद की ताकि शौचालयों के साथ-साथ हाथ धोने के भी जरूरी सामान। लोग अपने घरों में जुटा लें इसके बारे में काफी बड़े पैमाने पर लोगों के बीच जाकर जानकारी भी दी गई। स्वच्छता का अपना लक्षक्ष्य पूरा करते हुए सरकार ने फिर साल-दर-साल इस अभियान में कटौती भी की। स्वच्छ भारत मिशन को बजट 2020-21 में 12,300 करोड़ रुपए मिलें हैं. जो 2019-20 के बजट में 12,644 करोड़ मिले थे और उससे पहले के बजट (2018-19) में 31 फीसद कम यानी 19,427 करोड़ मिले थे।

वॉटर ऐड इंडिया की स्पाटलाइट ऑन हैंडवॉश इन रूरल इंडिया, 2017 की रिपोर्ट में बताया गया है कि साबुन से हाथ धोने की आदत बच्चों को डायरिया से भी बचाती है भारत में पांच साल से कम उम्र के ज्यादातर बच्चों की जान इसीलिए जाती है क्योंकि उनमें हाथ धोने की आदत नहीं है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि हाथ धोने की आदत काफी खर्चीली है और हर ग्रामीण परिवार इसका बोझ नहीं उठा सकता। जानकारों का मानना है कि हाथ धोने जैसी आदते डालना एक मुश्किल काम है इसे एकदम नहीं बदला जा सकता। जागरुकता अभियान के साथ इसके फायदे गिनाकर ही कुछ आगे बढ़ा जा सकता है। इस अभियान को अगर पोषण अभियान के साथ जोड़ दिया जाए तो उम्मीद है कि इसके नतीजे ज्यादा तेजी से सामने आएंगे।

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बहरहाल, आज हम सभी जान रहे है कि एक तरफ जहां दुनिया के कई विकसित देशों में कोरोना से मरने वालों का आंकड़ा लाखों से ऊपर पहुंच गया है वहीं दूसरी तरफ किस तरह सोशल डिस्टैन्सिंग, क्वारेनटाइन और साफ-सफाई की अच्छी आदतें हमें कोरोना जैसे जानलेवा वायरस से भी बचा ले जा सकती है। एच1एन1 महामारी के वक्त भी सरकार ने जनता के बीच खांसी को लेकर जागरुकता अभियान चलाया था जिसको उम्मीद के मुताबिक गंभीरता से नहीं लिया गया था। अब कोविड-19 के समय भी सरकार ने भी साफ-सफाई और अन्य ध्यान रखने की बातों के सख्त आदेश दिए हैं। हर परेशानी के दौर के बाद एक अच्छा वक्त भी आता है जो कोविड-19 के बाद भी आना तय है। हम शुक्रगुजार हैं उन डॉक्टरों के जो सातों दिन 24 घंटे मरीजों के इलाज के लिए तैयार हैं। खासकर उस दौर में जब दुनिया के बाकी बड़े देश टरशरी केयर पर जोर दे रहे हैं और हमारे देश में प्राइमरी और सेकेंडरी लेवल पर इस वक्त पूरा जोर है जिससे सबकी जान बचना तय है।

 

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